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मणिपुर में नासूर बने जख्म - जातीय हिंसा का एक साल

प्रभाकर मणि तिवारी
३ मई २०२४

इंफाल घाटी में बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने पर विचार करने की मणिपुर हाईकोर्ट की सिफारिश के बाद बीते साल तीन मई को जातीय हिंसा का जो दौर शुरू हुआ था उसकी लपटें अब भी धधक रही हैं.

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Manipur ethnischer Konflikt zwischen den Meiteis und Kuki-Zos
तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

राजधानी इंफाल से शुरू हुई वह हिंसा जंगल की आग की तरह कुछ घंटों के भीतर ही पूरे राज्य में फैल गई थी. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इस हिंसा में दोनों तबकों के 227 लोगों की मौत हो गई और करीब 70 हजार लोग विस्थापित हो गए. इनमें से करीब 59 हजार लोग अपने परिवार या परिवार के बचे-खुचे लोगों के साथ साल भर से राज्य के विभिन्न स्थानों पर बने राहत शिविरों में रह रहे हैं. इनमें से कुछ लोगों ने पड़ोसी मिजोरम में शरण ले रखी है. इस हिंसा से प्रभावित लोगों के जख्म अब नासूर बन चुके हैं. मणिपुर में जारी हिंसा में अब तक पुलिस और सुरक्षाबलों के 16 जवान भी मारे जा चुके हैं.

बीते एक साल में केंद्र या राज्य सरकार ने उनके इन जख्मों पर मरहम लगाने की कोई कोशिश नहीं की है. इसके कारण हिंसा के एक साल बाद भी राज्य की तस्वीर जस की तस है. हालांकि बीते करीब आठ महीनों से राज्य में हिंसा की कोई बड़ी वारदात नहीं हुई है. लेकिन हिंसा थमने का भी नाम नहीं ले रही है. मैतेई और कुकी-जो तबकों के बीच अविश्वास का खाई इतनी गहरी हो गई है जिसका पाटना बहुत कठिन लगता है. इसी माहौल में राज्य की दोनों लोकसभा सीटों के चुनाव के दौरान भी हिंसा की घटनाएं हुईं. लेकिन यह राज्य इतने बड़े पैमाने पर हिंसा झेल चुका है कि अब दो-चार लोगों की हत्या को मामूली घटना समझा जाने लगा है.

लोकसभा चुनाव के दौरान मणिपुर में कुछ जगहों से तोड़फोड़ और बूथ कैप्चरिंग की खबरें आई हैे
लोकसभा चुनाव के दौरान मणिपुर में कुछ जगहों से तोड़फोड़ और बूथ कैप्चरिंग की खबरें आई हैे तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

अब हालत यह है कि राज्य की दोनों प्रमुख जनजातियों यानी मैतेई और कुकी के बीच विभाजन की रेखा बेहद साफ नजर आती है. मैतेई लोगों के गढ़ इंफाल घाटी में कुकी समुदाय का कोई व्यक्ति नहीं नजर आता. यही स्थिति कुकी बहुल पर्वतीय इलाकों में भी है. वहां मैतेई समुदाय का कोई व्यक्ति नजर नहीं आता. एक-दूसरे के इलाकों में सदियों से आपसी भाईचारे के साथ रहने वाले अब या तो जान से मार दिए गए हैं या अपने परिवार के साथ पलायन कर गए हैं. इन दोनों तबके के लोग अब एक-दूसरे के इलाके में कदम रखने की कल्पना तक नहीं कर सकते. उनको पता है कि ऐसा करने का मतलब मौत को गले लगाना है.

इस हिंसा के लिए कोई एक तबका दोषी नहीं है. दोनों तबके के लोगों ने जम कर हिंसा और आगजनी की है. इस हिंसा के भड़कने और इतने लंबे समय तक जारी रहने के लिए राज्य की बीजेपी सरकार को जरूर दोषी ठहराया जा सकता है. केंद्र सरकार ने भी इस मामले में हस्तक्षेप करने की बजाय चुप्पी साध रखी है. इसका नतीजा यह हुआ कि प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर यह बेहद खूबसूरत पर्वतीय राज्य अब युद्ध के मैदान में बदल चुका है.

केंद्र सरकार ने इलाके में शांति बहाल करने के लिए बड़े पैमाने पर केंद्रीय बलों को राज्य में भेज दिया. लेकिन सेना और केंद्रीय बलों की मौजूदगी भी हिंसा रोकने में नाकाम रही. इस हिंसा में महिलाएं भी भागीदार रहीं. कानून और व्यवस्था की स्थिति ढहने के कारण कई उग्रवादी गुट भी सक्रिय हो गए और उसके बाद हिंसा का जो दौर शुरू हुआ उस पर अब तक अंकुश नहीं लगाया जा सका है.

इस हिंसा ने राज्य के हजारों छात्रों का भविष्य भी अनिश्चित कर दिया है. हिंसा के कारण लंबे समय तक इंटरनेट बंद रहने की वजह से उन हजारों छात्रों और लोगों को भी भारी दिक्कत का सामना करना पड़ा जो देश के दूसरे शहरों में रह कर पढ़ाई या नौकरी कर रहे हैं. कई छात्र अपने समुदाय को बचाने के लिए लड़ाई में कूद गए और कलम छोड़ कर हथियार थाम लिया.

मणिपुर में चुनाव आयोजित कराने में सुरक्षा बलों की बड़ी संख्या में तैनाती करनी पड़ी है
मणिपुर में चुनाव आयोजित कराने में सुरक्षा बलों की बड़ी संख्या में तैनाती करनी पड़ी हैतस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

हिंसा की शुरुआत से ही तमाम गुटों ने बड़े पैमाने पर सरकारी अस्त्रागारों और थानो से हतियार लूट लिए. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पांच हजार से ज्यादा ऐसे हथियार लूटे गए थे. लेकिन सरकार की बार-बार अपील के बावजूद इनमें से अब तक 18 सौ हथियार ही लौटाए जा सके हैं.

मणिपुर के वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप फंजौबाम ने हिंसा के एक साल पूरा होने के मौके पर द न्यू इंडियन एक्सप्रेस में छपे अपने एक लेख में लिखा है कि राज्य में फिलहाल शांति की बहाली सबसे बड़ी और पहली प्राथमिकता है. इसके लिए हथियारबंद गुटों से उनके हथियार छीन कर लोगों में भरोसा बहाल करना जरूरी है. शांति बहाली के लिए दोनों गुटों के बीच बातचीत के जरिए उस गलतफहमी को दूर करना जरूरी है जो हिंसा की वजह बनी थी.

वह लिखते हैं, "मणिपुर में आगे की राह बेहद जटिल है. अगर किसी तरह शांति बहाल भी हो गई तो कड़वी हकीकत से सामंजस्य बैठाना बेहद मुश्किल होगा. जले हुए घरों को तो दोबारा बनाया जा सकता है. लेकिन जिन लोगों ने अपने परिजनों को खो दिया है उनका क्या होगा. ऐसे लोग आजीवन इस आग में जलते रहेंगे.”

कैसे शुरू हुई थी हिंसा

मणिपुर में मैतेई और कुकी तबके के बीच टकराव की चिंगारी कई महीनों पहले से सुलग रही थी. लेकिन इस आग में घी डाल कर विस्फोट का काम किया मणिपुर हाईकोर्ट के उस फैसले ने जिसमें उसने राज्य सरकार से मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की सिफारिश की थी.

मणिपुर की एन. बीरेन सिंह सरकार ने बीते साल मार्च में पर्वतीय इलाकों में जमीन पर अतिक्रमण हटाने का अभियान शुरू किया था. सरकार का कहना था कि सीमा पार म्यांमार से आने वाले घुसपैठिए जमीन पर अवैध कब्जा कर अफीम और दूसरी नशीली वस्तुओं की खेती और कारोबार कर रहे हैं. सरकार के इस अभियान के खिलाफ कुकी इलाकों में लगातार प्रतिवाद रैलियां आयोजित की जा रही थी. लेकिन हाईकोर्ट के फैसले से कुकी लोगों में आतंक पैदा हो गया.

दरअसल, संविधान का धारा 371 एफ के विशेष प्रावधानों के तहत राज्य के पर्वतीय इलाकों में दूसरे यानी मैतेई तबके के लोग जमीन या संपत्ति नहीं खरीद सकते थे. उन पर कुकी लोगों का ही अधिकार था. हाईकोर्ट के फैसले के बाद कुकी समुदाय को लगा कि अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने के बाद राज्य के बहुसंख्यक मैतेई लोग पर्वतीय इलाके की जमीन और संसाधनों पर भी कब्जा कर लेंगे. अपने अस्तित्व पर मंडराते इसी खतरे की वजह से कुकी तबके के लोगों ने आक्रमण ही बचाव की सर्वश्रेष्ठ नीति है के तहत मैतेई समुदाय के लोगों पर हमला कर दिया.

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि तीन मई को पूरे राज्य में कुछ घंटे के भीतर जिस तरह बड़े पैमाने पर हिंसा और आगजनी शुरू हुई वह एक सुनियोजित योजना का नतीजा था. पहले तीन दिनों के दौरान इस हिंसा में कम से कम 52 लोग मारे गए और सैकड़ों घर जला दिए गए. इसके अलावा हजारों लोग विस्थापित हो गए.

अब हिंसा के एक साल पूरे होने के मौके पर तीन मई को पर्वतीय इलाकों में 'कुकी-जो जागृति दिवस' के तौर पर मनाने की अपील की गई है. इस मौके पर कुकी बहुल चूड़ाचांदपुर जिले में शोक सभा भी आयोजित की जाएगी. दूसरी ओर, इंफाल में विभिन्न गुटों ने 'चिन-कुकी नार्को आतंकवादी आक्रमण के 365 दिन' के मौके पर एक सभा आयोजित की है.

कुकी संगठन इंडीजीनस ट्राइबल लीडर्स फोरम के सचिव मुआन तोम्बिंग कहते हैं, अब हम मैतेई लोगों के साथ नहीं रह सकते. हमें अलग राज्य या केंद्र शासित प्रदेश चाहिए. इस मांग पर कोई समझौता नहीं हो सकता. ऐसा नहीं होने तक हम अपनी जमीन की सुरक्षा खुद करते रहेंगे.

दूसरी ओर, एक मैतेई संगठन कोऑर्डिनेटिंग कमिटी आन मणिपुर इंटीग्रिटी (कोकोमी) के प्रवक्ता खुराईजाम अथौबा कहते हैं, "केंद्र सरकार को कुकी उग्रवादी संगठनों से कड़ाई से निपटना होगा. कुकी संगठनों के खिलाफ अभियान के लिए वर्ष 2008 में पर हुए समझौते को स्थगित करने के कारण उग्रवादी संगठनों की ताकत बढ़ गई है. यही लगातार बढ़ती हिंसा की मूल वजह है."

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि साल भर बीत जाने के बावजूद राज्य में तस्वीर जरा भी नहीं बदली है. मुख्यधारा की मीडिया में भले अब मणिपुर की हिंसा को खास जगह नहीं मिल रही हो, राज्य की जमीनी परिस्थिति बेहद गंभीर है. यहां के लोगों को जख्म अब नासूर बन गए हैं.